मानव पाचन तंत्र -Human Digestive System in Hindi

भूख लगना प्राणीमात्र का एक  नेचुरल लक्षण है। जो कुछ भी ग्रहण करने से भूख शान्त हो जाए साधारण अर्थो में उसे आहार कहा जाता है। आहार का विशिष्ट अर्थ इन शब्दों में अस्पष्ट किया सकता है। “वह ठोस या तरल सामग्री आहार कहलाती है। जिसे ग्रहण करने से भूख मिटती है, शरीर शक्ति प्राप्त करता है, शरीर की वृद्धि एवं विकास होता है। शरीर के अंदर वाली टूट-फूट की मरम्मत होती है। तथा प्राणी रोगो से लड़ने की क्षमता प्राप्त करता है।” इन विविधि उद्देश्यों की पूर्ति केवल आहार ग्रहण करने से नहीं हो जाती

बल्कि ग्रहण किये गये आहार का समुचित पाचन तथा शोषण होना अनिवार्य है। हमारे शरीर में आहार ग्रहण करने एवं उसके पाचन एवं शोषण का कार्य एक लम्बी प्रक्रिया के माध्यम से होता है। इस प्रक्रिया में शरीर के अनेक अंग भाग लेते है। इन समस्त अंगो की व्यवस्था को ही पाचन-तंत्र कहते है। इस लेख में आप को पाचन-तंत्र Digestive System in Hindi  के बारे में विस्तार से पूरी जानकारी दी गई है।

पाचनतंत्र के प्रमुख अंगों के नाम (Digestive System in Hindi)

प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि मुख द्वारा आहार या भोजन ग्रहण किया जाता है। तथा आहार में ग्रहण की गई खाद्य सामग्री के व्यर्थ पदार्थ एवं अवशेष मल के रूप में मल-द्वार से विसर्जित हो जाते है। इस प्रकार शरीर के अंदर मुख से लेकर मल-द्वार तक का जो मार्ग है, वह आहार मार्ग या आहारनाल कहलाता है। इस आहारनाल में विभिन्न अंग है।

जिनके आकर कार्य एवं नाम भिन्न-भिन्न है। आहारनाल के अंगो के अतिरिक्त भी शरीर में कुछ ऐसे अंग है। जो आहार के पाचन में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करते है। इस प्रकार स्पष्ट है कि शरीर कुछ अंग पाचन एवं शोषण की क्रिया में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेते है, जब की कुछ अन्य अंग पाचन क्रिया में आहार नाल के बाहर से सहायता प्रदान करते है। आहार नाल तथा इन समस्त अंगो को सम्मिलित रूप में पाचन-तंत्र (Digestive System)   के नाम से जाना जाता है। पाचन-तंत्र से संबन्धित मुख्य अंगो के नाम निम्मन है।

  • मुख (Mouth)
  • ग्रसनी तथा ग्रासनली (Pharynx and Oesophagus)
  • अमाशय (Stomach)
  • पक्वाशय या ग्रहणी (Duodenum)
  • यकृत (Liver)
  • पित्ताशय (Bile sac or Gall Bladder)
  • अग्न्याशय या क्लोम (Pancreas)
  • प्लीहा या तिल्ली (Spleen)
  • छोटी आँत (Small intestine)
  • बड़ी आँत (Large intestine)

पाचन-तंत्र के इन अंगो में मुख, ग्रसनी, ग्रासनली, अमाशय, पक्वाशय या ग्रहणी, छोटी आँत  तथा बड़ी आँत आहार मार्ग अथवा आहार नाल का निर्माण करते है। इन अंगो में से होकर आहार सरकता है। तथा यही अंग पाचन किया को प्रत्यक्ष रूप से संपन्न करते है। इनके अतिरिक्त यकृत, पित्ताशय, अग्न्याशय तथा प्लीहा ग्रन्थिया भी पाचन-तंत्र के अंग है, जो पाचन क्रिया में सहायक होते है। इन ग्रन्थिया से विभिन्न स्त्राव निकलते है जो आहार के पाचन के लिए आवश्यक होते है। मुख में स्थिल लार ग्रन्थिया भी पाचन में सहायता प्रदान करती है। पाचन-तंत्र के प्रत्यक्ष अंगो की शरीर में स्थिति, रचना, कार्यो तथा पाचन में योगदान का विवरण विस्तार से है।

मुख (Mouth)

पाचन-तंत्र का प्रथम अंग मुख है। यह होठों से प्रारम्भ होता है। इसमें दाँत, जीभ तथा लार-ग्रन्थियाँ पाई जाती है। मुख के इन तीनो अंगो द्वारा पाचन-क्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है। मुख का पाचन-तंत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। पाचन-क्रिया में चक्की का कार्य करता है। दाँत आहार को बारीक़ करने का कार्य करते है। वयस्क व्यक्ति के मुँह में कुल 32 दाँत होते है। जीभ आहार को अंदर धकेलने का कार्य करती है तथा लार-ग्रन्थियाँ होती है जो लार उत्पन्न करती है। इन ग्रंथियों की स्थिति एवं नाम निम्नवर्णित है।

  • कर्णपूर्व ग्रन्थियाँ- ये ग्रन्थियाँ कानो के समीप कपोलों में स्थित होती है।
  • जिह्राधर ग्रन्थियाँ- ये ग्रन्थियाँ जीभ के ठीक नीचे होती है।
  • अधोहनुवीय ग्रन्थियाँ- ये जबड़े के नीचे स्थित होती है।

प्रत्येक प्रकार की ग्रंथियाँ संख्या में दो होती है। इन ग्रंथियों में बहुत छोटी-छोटी नलिकाएँ होती है। जिनके द्वारा लार मुख में आती है। भोजन जैसे मुख में पहुँचता है। लार-ग्रंथियाँ क्रियाशील हो जाती है और उनसे लार निकलकर भोजन में मिल जाती है। लार-मिश्रित भोजन लुग्दी जैसा हो जाता है, जिसके कारण भोजन जिह्रा की सहायता से आहारनाल में सरलता से पहुंच जाता है। लार एक पारदर्शी, क्षारीय, पनीला, गाढ़ा और चिपचिपा द्रव होता है। इसमें टायलिन नामक खमीर होता है।

यह लार का सक्रिय तत्व है। यह खमीर भोज्य-पदर्थो से मिलकर उनमे रासायनिक परिवर्तन कर देता है। इससे आहार का श्वेतसार (मण्ड), जो सामान्य दशा में अपाच्य होता है, अंगूरी शक़्कर में बदल जाता है। तथा शीघ्र पचने योग्य बन जाता है। लार से मुख नम बना रहता है। इन लार-ग्रन्थियों संबन्ध कुछ नाड़ियो द्वारा मस्तिष्क से होता है। इसलिए नाड़ियों के उत्तेजित होने पर ग्रन्थियों से लार बहुत तीव्र गति से निकलने लगती है। इसके विपरीत जब किसी बात का भय या चिंता होती है। तो नाड़ियों में उत्पन्न गड़बड़ी से लार सुख जाती है, जिसमे मुख भी सूखा-सा हो जाता है।

ग्रासनली (Grassnali)

पाचन-तंत्र का दूसरा मुख्य अंग ग्रासनली है। गले में जीभ की जड़ से ठीक पीछे घाँटीद्वार (Glottis) होता है। जो स्वर-यंत्र से संबंधित रहता है। घाँटीद्वार के पीछे ग्रसनी (Pharynx) होती है। इससे एक लम्बी नली संबंधित होती है। जो टेंटुए के पीछे से होती हुई शरीर के अंदर चली जाती है। तथा नीचे अमाशय में मिल जाती है। इस नली को भोजन-नली या ग्रासनली या अन्न-नलिका कहते है।

मुख के बाद गले से निगले जाने पर भोजन यही से होकर आगे बढ़ता है। भोजन नली लगभग 25 से 38 सेंटीमीटर तक लम्बा होती है। यह टेंटुए के पीछे स्थित होती है और टेंटुए के समाप्त होने पर इसके सामने ह्रदय रहता है। ह्रदय के पीछे से यह डायाफ्रम  भीतर होती हुई अमाशय में पहुँचती है।  यह नली गोल छल्लेदार पेशियों से निर्मित होती है। भोजन के पहुंचते ही ये पेशियाँ खिचती है, जिससे भोजन नली मुँह खुल जाता है। तथा भोजन के आगे बढ़ने के लिए मार्ग मिल जाता है।  भोजन के पहुंचते ही इस नली के पेशियों में सकुचन तथा प्रसार प्रारम्भ हो जाता है और इस क्रिया से भोजन कुछ-कुछ पिसता हुआ आगे की और सरकता जाता है तथा अमाशय तक जा पहुँचता है।

अमाशय (Stomach)

ग्रासनली का अंतिम भाग अमाशय से जुड़ा होता है। यह मशकाकार थैला है तथा उदर के बाए भाग में डायफ्राम के नीचे स्थित रहता है। इसकी लम्बाई 30 सेमी और चौड़ाई लगभग 10 सेमी होती है। इसका ऊपरी किनारा अवतल व छोटा तथा निचला किनारा उत्तल व बड़ा होता है। अमाशय के बायीं ओर ऊपर के भाग में एक छेद होता है जहाँ से भोजन-नली से भोजन अमाशय में पहुँचता है। भोजन पहुंचने का यह मार्ग ह्रदय के निकट होने के कारण ह्रद द्वार (Cardia) कहलाता है। दाहिनी ओर एक छिद्र द्वारा अमाशय छोटी आँत से जुड़ा रहता है। इस छिद्र को जठर निर्गम द्वार या पाइलोरस (Pylorus) द्वार कहते है।

अमाशय की दीवार अनैच्छिक पेशियों तथा तन्तुमय ऊतकों से बनी होती है। दीवार की बाहरी सतह पर स्थित झिल्ली ऊदर्या या पेरिटोनियम (Peritoninum) कहलाती है। भीतरी सतह पर श्लेष्मिक झिल्ली की परत होती है, जिसमे लम्बाई में गहरी सिकुड़ने पड़ी रहती है। अमाशय में भोजन के आने पर इसकी दीवारों के उभार खिचकर फ़ैल जाते है। भोजन के पहुंचने पर अमाशय की लगभग पूरी भीतरी दीवार फैलकर सपाट-सी हो जाती है। भोजन अमाशय में लगभग 4 घण्टे तक पचने की क्रिया में रहता है।

अमाशय की श्लेष्मिक झिल्ली अनेक छोटी रक्त-कोशिकाएँ फैली रहती है। पाचन-क्रिया के समय रक्त-प्रवाह के कारण इस झिल्ली का रंग लाल दिखाई पड़ता है ।लेकिन अमाशय में भोजन के न रहने की स्थिति में इनमे रक्त नहीं रहता और इस कारण से इस झिल्ली का रंग हल्का पीला-सा दिखाई पड़ता है। इस झिल्ली में रक्त-कोशिकाओं के अतिरिक्त कुछ तंत्रिका-तन्तु तथा बहुत-सी छोटी छोटी ग्रंथिया भी होती है जो एक प्रकार के पाचक-रस का निर्माण करती है। इस रस को जठर रस (Gastric Juice) कहते है।

पक्वाशय (Duodenum)

अमाशय से आगे चलने पर पाचन-तंत्र का जो अंग प्रारम्भ होता है। उसे पक्वाशय या ग्रहणी (Duodenum) कहते है। इसका प्रारम्भ अमाशय के निचले द्वार से होता है। इसकी आकृति अंग्रेजी वर्ण माला के अक्षर ‘C’ के सामान होती है। इसकी लम्बाई लगभग 25 सेमी होती है। यकृत से पित्त-नली तथा अग्नाशय से क्लोम-नली इसके निचले हिस्से में आकर मिलती है। जैसे ही भोजन अमाशय से आहारनाल के इस भाग (पक्वाशय) में आता है, वैसे ही विभिन्न रस यहाँ पहुंचने लगते है जो भोजन में सहायक होते है।

छोटी ऑत (Small Intestine)

पक्वाशय से आगे वाले भाग को छोटी आँत कहते है। छोटी आँत की लम्बाई लगभग 5 मीटर होती है। तथा आकर में यह कुण्डलित-नली जैसी होती है। इसका पहला भाग लगभग 2½ मीटर लम्बी तथा 4 सेमी चौड़ी नली के रूप में होता है। इरा नली की दीवारों में रुधिर-वाहिनियों का जाल बिछा होता है। छोटी आँत का शेष आधा भाग लगभग 2½ मीटर लम्बी तथा 4 सेमी चौड़ी अत्यधिक कुण्डलित नली के रूप में होता है। छोटी आँत में भीतरी सतह पर छोटे-छोटे अंगुली के आकर के उभार आँत की गुहा में लटके रहते है, जिन्हे रसाकुंर (Villi)  कहते है। सिलवटों तथा रसाकुंर जैसे उभारो के कारण आंत्रीय दीवार के इस भीतरी तल का क्षेत्र फल कई गुना बढ़ जाता है।

प्रत्येक रसाकुर (Villus) में एक मोटी लसीका वाहिनी (Lymph Vessels) तथा कई रुधिर वाहिनियाँ (Blood Vessels) होती है। जो जाल बनाती है। शेष दीवार में रसाकुरो के बीच-बीच में श्लेष्मिक कला धसकर नलाकार, आंत्रीय-ग्रंथिया (Intestinal Glands) बनाती है। ये ग्रंथिया पाचक आंत्रीय रस (Intestinal Juice) बनाती है।

बड़ी आँत (Large Intestine)

छोटी आँत के आगे के पाचन तंत्र या आहारनाल को बड़ी आँत (Large Intestine) कहते है। यह शेष आहारनाल होती है। तथा लगभग 1.50 से 1.80 मीटर लम्बी व 6 सेमी चौड़ी होती है। इसके तीन भाग होते है। उण्डुक, कोलन तथा मलाशय छोटी आँत बड़ी आँत में उण्डुक तथा कोलन के संगम स्थान पर खुलती है।

  • उण्डुक या अंधान्त्र (Caecum) यह लगभग 6 सेमी लम्बा तथा 5 सेमी चौड़ा थैली जैसा भाग है, जिसमे एक ओर 9 सेमी लम्बी सकरी व कड़ी बंद नलिका निकलती है। इसको कृमिरूप परिशेषिका (Vermiform Appendix) कहते है। इस संरचना का मानव शरीर में कोई महत्व नहीं है। और अनावश्यक है।
  • कोलन- (Colon) यह लगभग 25 मीटर लम्बी और 6 सेमी चौड़ी नलिका है। यह उदरगुहा में उल्टे ‘U’ के आकर की होती है। तथा समपूर्ण छोटी आँत को घेरे रहती हैव् अंत में यह मलाशय में खुलती है।
  • मलाशय- (Rectum) यह 16 सेमी लम्बी तथा 4 सेमी चौड़ी नलिका है। इसका अंतिम सिरा बहुत सकरा होता है। जिसकी लम्बाई 3 या 4 सेमी होती है। इसको गुदा-नाल (Anal Canal) कहते है। गुदा नाल की दीवार सकोची पेशियों की बनी होती है। गुदा-नाल के अंतिम सिरे पर छिद्र होता है। जिसे गुदा-द्वार या मल-द्वार (Anal Aperture) कहते है। सकोची पेशियों इस छिद्र को बंद रखती है। बड़ी आँत की दीवार में सभी परतें वही है जो छोटी आँत की दीवार में होती है। बड़ी आँत में रसाकुरो का अभाव होता है। समस्त व्यर्थ पदार्थ मल के रूप में मल द्वार से विसर्जित हो जाते है।

यकृत (liver)

पाचन-तंत्र के कुछ अंग ऐसे है जो आहार ग्रहण करने तथा उसके पाचन की क्रिया में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेते है। इन अंगो को आहार-मार्ग या आहारनाल के रूप में जाना जाता है।  ये वे अंग है जिनमे से होकर आहार सरकता है तथा मल के रूप में विसर्जित हो जाता है।  इन अंगो के अतिरिक्त पाचन-तंत्र के कुछ अन्य अंग भी है। जो पाचन-क्रिया में बाहर से सहायता प्रदान करते है।  इस वर्ग के मुख्य अंग है। यकृत पित्ताशय या क्लोम तथा प्लीहा या तिल्ली इन्हे पाचन-तंत्र के सहायक अंग कहा जाता है।

यकृत की स्थिति एवं बनावट (Liver Condition And Structure)

यकृत शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है। यह पाचन-संस्थान का एक महत्वपूर्ण अंग है। यकृत का रंग कुछ-कुछ भूरा-सा होता है। यह उदर के ऊपर मध्यपट के नीचे पसलियों के पास स्थित होता है। इसके दो भाग होते है। दाया भाग तथा बाए भाग दाया भाग बाए भाग से कुछ बड़ा होता है। एक स्वस्थ व्यक्ति के यकृत का भार लगभग डेढ़ किलोग्राम होता है।

यकृत का निर्माण करने वाली कोशिकाओं का आकर अष्टकोणीय-सा होता है। यकृत में रक्त दो रक्त-वाहिकाओं द्वारा आता है। शुद्ध रक्त लाने वाली यकृत धमनी (Hepatic Artcry) कहलाती है, जो महाधमनी की ही एक शाखा है। इसी के द्वारा यकृत का पोषण होता है। यकृत से अशुद्ध रक्त बाहर ले जाने वाली रक्त-वाहिका यकृत के नीचे की ओर पास में ही एक छोटी-सी थैली होती है। जिसे पित्ताशय (Gallbladder) कहते है। यकृत में बनने वाला हरे रंग का पित्त-रस इसमें इकठ्ठा होता रहता है। जो यकृत से एक अन्य नली द्वारा इसमें आता है।

यकृत को काटकर देखने से इसकी आंतरिक रचना स्पष्ट हो जाती है। यकृत भीतर से अनेक छोटे-छोटे भागो में बटा हुवा होता है। इसमें यकृत धमनी, प्रतिहारिणी शिरा तथा पित्त-नलिका की अनेक शाखाएँ फैली हुई दिखाई देती है। ये तीनो नलिकाए यकृत पोषण करती है। शिरा द्वारा अशुद्ध रक्त यकृत से बाहर ले जाया जाता है।

यकृत के कार्य (Liver Function in Hindi)

यकृत शरीर के लिए बहुत महत्वपूर्ण कार्य करता है। यदि किसी व्यक्ति के शरीर में से यकृत को निकाल दिया जाये तो 25 घंटे के अंदर-अंदर ही उसकी मृत्यु हो जाती है। यकृत का मुख्य कार्य निम्नवर्णित है।

  • पित्त रस का निर्माण- यकृत का मुख्य कार्य पित्त-रस पाचन-क्रिया में विशेष रूप से सहायक होता है। यकृत में प्रतदिन 500 से 700 मिली पित्त-रस बनता है जो पित्ताशय में संचित हो जाता है।
  • शर्करा को संचित करना- यकृत रक्त-शर्करा का सन्तुलन बनाये रखने में सहायता करता है। यह पाचन-क्रिया के फलस्वरूप बनी शर्करा की आवश्यकता से अधिक मात्रा को ग्लाइकोजन में परिवर्तित कर अपने भीतर संचित कर लेता है। तथा आवश्यकता पड़ने पर पुनः शर्करा में परवर्तित कर रक्त में प्रवाहित कर देता है।
  • पौष्टिक तत्वों को संचित करना- यकृत का एक अन्य कार्य लोहा, तांबा तथा अनेक पोषक तत्वों को संचित रखता है।
  • हानिकारक जीवाणुओ को नष्ट करना- यकृत रक्त की को कोशिकाएँ अनेक जीवाणुओ को नष्ट कर देती है।
  • मृत लाल रक्त-कोशिकाओं को नष्ट करना- यकृत रक्त में उपस्थित मृत लाल रक्त-कोशिकाओं को नष्ट करता रहता है।
  • फाइब्रिनोजन का निर्माण- यह फाइब्रिनोजन नामक प्रोटीन का निर्माण करता है, जो रक्त के जमने में सहायता करती है।
  • हिपेरिन का निर्माण- यकृत हिपेरिन बनाता है, जो रक्त को जमने से रोकती है।
  • नाइट्रोजन युक्त हानिकारक पदार्थो को दूर करना- आवश्यकता से अधिक ऐमिनो अम्लों के विखण्डन के फलस्वरूप यूरिया तथा शर्करा बनते है। यूरिया गुदो के द्वारा शरीर से बाहर निकल जाता है।
  • रक्त के आयतन में वृद्धि करना- यकृत अस्थायी रूप से जल को संचित कर रक्त को तनु अथवा जलयुक्त करता रहता है।
  • पाचन-क्रिया में सक्रीय सहयोग- यकृत पित्त-रस का निर्माण करता है, जो वसा के पाचन में सहायता करता है तथा भोजन की अम्लीयता को प्रभावहीन कर उसे क्षारीय बनाता है।
  • विषैले पदार्थो का निष्कासन- यकृत विषैले तथा धात्वीय विषो को निष्कासित करता है। अतः भोजन के माध्यम से विष द्वारा हुई मृत्यु में मृतक के यकृत का पोस्टमार्टम परीक्षण अत्यधिक महत्व रखता है।
  • लाल रक्त-कोणिकाओ का निर्माण- भ्रूणावस्था में लाल रक्त-कणिकाओं का निर्माण यकृत द्वारा ही होता है, जबकि वयस्कों में ये अस्थि-मज्जा में बनती है।

पाचन तंत्र में पाए जाने वाले मुख्य पाचक रस (Pancreatic Juice Contains)

हमारे शरीर में अनेक पाचक रस होते है। इन पाचक रसो में कुछ ऐसे तत्व होते है जो भोजन को शीघ्र पचने योग्य बना देते है। यदि मानव शरीर में किसी पाचक रस का अभाव हो जाता है तो उसका प्रभाव मनुष्य के स्वास्थ पर गंभीर रूप से पड़ता है। इन पाचक रसो में अमाशयिक रस, अग्न्याशयिक रस, पित्त-रस व आंत्रीय-रस मुख्य है। इन रसों का संक्षिप्त परिचय कुछ इस प्रकार है।

लार (Sliva)

लार मुख में पाया जाने वाला पाचक रस है। इसका स्त्राव मुख मे स्थित छः लार ग्रंथियो से होता है। लार में टायलिन नामक एन्जाइम पाया जाता है। टायलिन नामक एन्जाइम आहार में विद्ममान कार्बोहाइड्रेड के पाचन में सहायक होता है। यह भोजन के श्वेतसार को अंगूरी शर्करा में परिवर्तित कर देता है।

अमाशयिक रस (Gastric Juice)

अमाशय की भित्ति की भीतरी परत में श्लेषिक झिल्ली होती है। इसमें छोटी-छोटी ग्रंथिया होती है। जिन्हे अमाशयिक ग्रंथिया कहते है। इन्ही ग्रंथिया से निकलने वाला रस अमाशयिक रस होता है। इसे जेठर रस भी कहते है। इस रस में नमक का अम्ल (हाइड्रोक्लोरिकएसिड), रेनिन तथा पेप्सिन नाम के दो खमीर (Enzymes) होते है। खमीर वे कार्बनिक पदार्थ होते है जो एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ में बदल देते है। पाचन-क्रिया में इनका महत्वपूर्ण योगदान है।

अग्न्याशयिक रस (Pancreatic Juice)

यह क्लोम नामक ग्रंथि में बनता है। यह ग्रंथि आमाशय के ठीक पीछे स्थित होती है। और यह पक्वाशय से प्लीहा तक फैली होती है। यह लगभग 14-15 सेमी लम्बी होती है। इसका दाहिनी सिरा पक्वाशय में खुलता है। और बाया सिरा प्लीहा से जुड़ा रहता है। इसकी आकृति पिस्तौल की भाति होती है। इस ग्रंथि में बनने वाले रस को ही अग्न्याशयिक रस कहते है। संगठन और कार्य- अग्न्याशयिक रस पतला, स्वछ और खारेपन का गुण लिए होता है। इस रस में तीन खमीरे (Enzymes) पाये जाते है।

1 एमाइलोप्सिन 2 ट्रिप्सिन और 3 लाइपेज इसके कार्य कुछ इस प्रकार के है।

  • एमाइलोप्सिन भोजन में बिना पचे हुए मण्ड (Statch) को शक़्कर में बदल देता है।
  • ट्रिप्सिन नामक खमीर भोजन के प्रोटीन को पेप्टोन में परिवर्तित क्र देता है।
  • लाइपेज वसा (Fats) को गिल्सराल और वसा-अम्ल में विभक्त कर देता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है की अग्न्याशयिक रस भोजन के कार्बोज, प्रोटीन और वसा (चिकनाई) को पचाने में सहायता प्रदान करता है।

पित्त-रस (Bile Juice)

पित्त-रस हरे रंग का का द्रव होता है। यह यकृत में बनता है और यकृत-नली द्वारा पित्ताशय में जमा होता रहता है। पाचन-क्रिया के समय आवश्यकता पड़ने पर यह पित्त-नली द्वारा पक्वाशय में उसी स्थान पर पहुंच जाता है। जहाँ अग्न्याशयिक रस पहुँचता है। पित्त-रस पाचन-क्रिया में विशेष सहायता नहीं करता, यह केवल अग्न्याशयिक रस की सहायता करता है। इसकी सहायता से वसा का पाचन सरलता से हो जाता है। इसके अतिरिक्त पित्त-रस कुछ इस प्रकार कार्य करते है।

  • यह भोजन को अवशोषण योग्य बनाता है और रक्त गाढ़ा करता है।
  • यह रस अंगूरी शक़्कर को ग्लूकोज में परिवर्तित कर के उसे पचाने में सहायता करता है।
  • विषैले पदर्थो (Toxins) को नष्ट कर आंतो में सड़न पैदा होने से रोकता है।
  • इस रस द्वारा रक्त का हीमोग्लोबिन वजर्य पदार्थो से अलग हो जाता है।

आंत्रीय-रस (Intestinal juice)

पाचन तंत्र में एक रस आंतो से भी स्त्रावित होता है। इसे आंत्रीय रस (Intestinal Juice) कहते है। छोटी आँत के अंदर स्थित छोटी-छोटी ग्रंथिया में इस रस का निर्माण होता है। इस रस का मुख्य कार्य भोजन को इतना घुलनशील बनाना है की वह रक्त द्वारा शीघ्र ही अवशोषित किया जा सके। घोलने की इस क्रिया को पूरा करने में इस रस में पाये जाने वाले दो मुख्य खमीरो का मुख्य योगदान होता है। ये खमीर है- इरेप्सिन (Erepsin) और एण्टोरोकाइनेज (Enterokinase) ये दोनों खमीर पाचन क्रिया में महत्वपूर्ण योगदान देते है।

 पाचन और अवशोषण (Digestion And Absorption)

यह सत्य है की शरीर के सुचारु रूप से कार्य करने तथा वृद्धि, विकास एवं निरोगता के लिए आहार अत्यंत आवश्यक है। आहार से आशय अनिवार्य तत्वों से है। जो शरीर के लिए आवश्यक है। ये तत्व है।- प्रोटीन, वसा, कार्बोज, खनिज लवण, विटामिन, तथा जल लेकिन हम इन तत्वों  को शुद्ध अवस्था में ग्रहण नहीं कर सकते। हम इन अनिवार्य तत्वों को विभिन्न भोज्य पदार्थो के माध्यम से ग्रहण करते है।

उदाहरण के लिए- प्रोटीन को हम दूध, अण्डे एवं मांस आदि के माध्यम से ग्रहण करते है। कार्बोज को मेदा, आलू गुण तथा कुछ अन्य भोज्य पदार्थो के माध्यम से ग्रहण करते है। इसी प्रकार बहुत से फलों, सब्जिया एवं अनाजों के माध्यम से भी हम कुछ अन्य पोषक तत्व ग्रहण करते है। इन सभी भोज्य पदार्थो के केवल ग्रहण करने मात्र से शरीर की पूर्ति एवं पोषण नहीं हो जाता।अभीष्ट उद्देश्य के लिए ग्रहण किए गए आहार का समुचित पाचन, अवशोषण तथा इसके साथ ही साथ चयापचय की प्रक्रियाओं का सुचारु रूप से संपन्न होना अनिवार्य है। इन तीनो प्रक्रियाओं का सामान्य परिचय निम्नवर्णित किया गया है।

पाचन क्या है (What is Digestion)

हम पोषक तत्वों को विभन्न भोज्य पदार्थो के माध्यम से ग्रहण करते है। ये भोज्य पदार्थ जटिल अवस्था में होते है। इनसे पोषक तत्वों को सरल अवस्था में पहुंचने के लिए पाचन की प्रकिया का होना अनिवार्य है। पाचन की प्रक्रिया एक लम्बी तथा बहुस्तरीय प्रक्रिया है। हमारे द्वारा ग्रहण किया गया भोजन ठोस अथवा तरल अवस्था में हो सकता है,

लेकिन प्रत्येक दशा में वह जटिल अवस्था में ही होता है। अब प्रश्न उठता है कि पाचन की क्रिया क्या है? पाचन की क्रिया वास्तव में वह क्रिया है जो ग्रहण किए गए जटिल भोज्य पदार्थो को साधारण एवं घुलित अवस्था में परिवर्तित क्र देती है। पाचन क्रिया के परिणामस्वरूप ग्रहण किया गया आहार विघटित होकर ग्रास-नलिका के कोषों की तह से गुजरकर रक्त एवं लसिका तक पहुँचता है। पाचन क्रिया वास्तव में मुँह से ही प्रारम्भ हो जाती है तथा छोटी आँत के अंतिम भाग तक विभिन्न स्तरों पर चलती रहती है। पाचन का सम्पूर्ण प्रक्रिया को मुख्य रूप से दो भागों में बाटा जा सकता है। पहला भाग यांत्रिक भाग और दूसरा भाग को रासायनिक भाग कहा जा सकता है। पाचन का पहला भाग अर्थात पाचन की प्रक्रिया का यांत्रिक भाग वास्तव में मुख द्वारा आहार ग्रहण करने से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाता है। सभ्य मानव समाज में प्रत्येक भोज्य पदार्थ को ग्रहण करने के लिए किसी-न-किसी प्रकार से तैयार करना अनिवार्य होता है।

इसके लिए अनाजों को कूटना, छानना, पकाना तथा घोलना, आदि किया जाता है। फलो एवं सब्जियाँ को भी छीलकर, काटकर तथा पकाकर खाया जाता है। वास्तव में इन क्रियाओ से ही पाचन की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि इस तैयारी से वास्तविक पाचन-क्रिया में उपयोगी योगदान प्राप्त होता है।

पाचन-क्रिया में पाक-क्रिया एवं पाक-प्रणालियों का भी विशेष महत्व है। भली प्रकार से पकाया हुवा आहार मुख से ग्रहण किया जाता है। मुख में दातो से इसे भली प्रकार से कुतरा एवं कुचला जाता है। यही लार भी भोजन में मिल जाती है। तथा भोजन एक प्रकार से लुग्दी का रूप ग्रहण कर लेता है। यहाँ भोजन महीन कणो का रूप ग्रहण कर लेता है। इसके बाद ये भोजन आहार नलिका के माध्यम से आगे बढ़ता है। यह कार्य आहार-नलिका की मांसपेशियों में होने वाली संकुचन तथा विमोचन की क्रिया से होता है। आहार-नलिका में वृत्ताकर तथा दीर्घाकार दो प्रकार की मासपेशिया पाई जाती है। इन मांसपेशियों की गति से पुनः आहार अधिक छोटे कणो के रूप में विभक्त होता है तथा आगे बढ़ता है।

शांत एवं स्वाभविक अवस्था में ग्रहण किए गए आहार पर यह यांत्रिक क्रिया अधिक सुचारु रूप में होती है। इसके विपरीत किसी प्रकार की उत्तेजना, चिंता, भय घबराहट तथा तनाव की अवस्था में आँतो की यह स्वाभविक गति रुक जाती है या धीमी अथवा तेज़ हो जाती है। इससे पाचन-क्रिया का यांत्रिक पक्ष सुचारु रूप में सम्पन्न नहीं हो पाता। पाचन प्रक्रिया का दूसरा पक्ष रासायनिक पक्ष है। पचान -क्रिया के इस रासायनिक पक्ष के अन्तर्गत पाचन-तंत्र में विभन्न एंजाइमी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विभिन्न ग्रंथियों से भिन्न-भिन्न पाचक-रासो का स्त्राव होता है। ये स्त्राव तथा एंजाइम आहार के साथ रसायनिक क्रिया करते है। रासायनिक क्रियाओं के परिणामस्वरूप आहार का पूर्णरूप से पाचन हो जाता है।

आहार का अवशोषण (Absorption of Food)

यह सत्य है कि क्रिया का विशेष महत्व होता है। लेकिन पाचन से भी अधिक महत्व शोषण या आत्मीकरण (Absorption) का है। यह क्रिया पाचन की प्रक्रिया के उपरान्त होती है। अच्छी प्रकार से पचा हुवा आहार अवशोषण के लिए तैयार होता है। अवशोषण उस क्रिया को कहा जाता है जिसके माध्यम से आहार के अनिवार्य पोषक तत्व साधारण एवं सरल इकाई के रूप में रक्त एवं लसिका में प्रवेश करते है।

रक्त एवं लसिका में मिलकर ही पोषक तत्व शरीर के लिए उपयोगी होते है। पोषक तत्वों का अवशोषण मुख्य रूप से छोटी आँत में ही होता है। अवशोषण का कार्य कुछ ग्राहकांकुरो द्वारा होता है। ये ग्राहकांकुर छोटी आँत में पाए जाते है। इनकी बनावट ऊँगली के सामान होती है। तथा ये अति महीन होते है। इन समस्त ग्राहकांकुरो का सम्बन्ध एक लसिका नली से होता है। लसिका वाहिनी द्वारा शोषित तत्व क्रमशः लसिका वाहक संस्थान में पहुंचते है। इसके बाद पोर्टल शिरा के माध्यम से यकृत में पहुंच जाते है। भिन्न-भिन्न तत्वों का अवशोषण भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। संक्षेप में कहा जा सकता है ग्रहण किए गए आहार का वस्तविक उपयोग अवशोषण के ही परिणामस्वरूप होता है।

चयापचय का अर्थ (Metabolic Meaning In Hindi)

पाचन एवं अवशोषण के अतिरिक्त एक अन्य अति महत्वपूर्ण शारीरिक क्रिया है ‘चयापचय’ (Metabolism) इस क्रिया के विभिन्न उद्देश्य है। शरीर में होने वाली क्षति की पूर्ति, कोशिकाओं का रख-रखाव एवं मरम्मत, शारीरिक क्रियाशीलता के लिए ऊर्जा प्रदान करना तथा शरीर के तापक्रम को स्थिर बनाए रखना चयापचय की क्रिया के मुख्य उद्देश्य है। मुँह द्वारा ग्रहण किए गए आहार का पाचन के उपरांत अवशोषण होता है तथा आहार के विभिन्न तत्व अपनी सरलतम अवस्था में अवशोषित होकर शरीर के उपयोग में आते है। इस प्रकार आहार के उपयोग में आने की क्रियाओं को ही चयापचय की क्रिया कहा जाता है।

उदाहरण के लिए- आहार का एक कार्य शरीर को आवश्यक ऊर्जा प्रदान करना तथा नई कोशिकाओं का निर्माण करना भी है। इस उद्देश्य के आहार का पाचन एवं अवशोषण होता है। तथा इस प्रकार से अवशोषित आहार ही शरीर को ऊर्जा प्रदान करने तथा कोशिका निर्माण का कार्य करता है। यही पक्रिया चयापचय की क्रिया है।

चयापचय की क्रिया के अंतर्गत आहार के तत्वों का सरल रूपों में विभक्तिकरण भी होता है। तथा कुछ जटिल पदार्थो का निर्माण भी होता है। इस प्रकार कहा जा सकता है। कि चयापचय शरीर में होने वाले रासायनिक परिवर्तनो की वह प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत अवशोषण होता है। तथा अवशोषित तत्व शरीर का एक भाग बन जाते है अथवा व्यर्थ पदार्थ शरीर से विसर्जित हो जाते है। चयापचय की सम्पूर्ण क्रिया दो स्तरों में पूरी होती है। ये स्तर है- उपचय (Anabolism) तथा अपचय (Catablism)

उपचय का अर्थ (Meaning Of Anabolism)

उपचय चयापचय की प्रक्रिया का वह भाग है जिसके अंतर्गत निर्माण होता है। अर्थात पोषक तत्वों में होने वाले वे समस्त रासायनिक परिवर्तन उपचय के अंतर्गत आते है, जिनके द्वारा रक्त, एंजाइम, विभिन्न तंतुओ, हार्मोन्स तथा ग्लाइकोजन आदि का निर्माण होता है।

उदाहरण के लिए- आहार में ग्रहण किए गए कार्बोहाइड्रेट्स तथा वसा पाचन के उपरांत अपने अंतिम अंशो के परमाणु सयंयोग से ग्लाइकोजन तथा ट्राइग्लिसराइड्स के रूप में परिवर्तित हो जाते है। अपने इस परिवर्तित रूप में ये यकृत तथा मांसपेशियों की कोशिकाओं तथा वसा ऊतकों में एकत्र हो जाते है। इन संगृहीत तत्वों से सामयिक पोषण होता है।

इसी प्रकार आहार में ग्रहण किए गए प्रोटीन पाचन के परिणामस्वरूप अमीनो अम्ल का रूप ले लेती है। ये एमिनो अम्ल परस्पर अपने विभिन्न परमाणुओ से सयोंग करके नवीन तत्व बनाते है।  ये नवनिर्मित तत्व कोशिकाओं के तत्वों के अनुरूप हो जाते है। तथा कोशिकाओं को इनसे पोषण प्राप्त होता है। कोशिकाओं को क्षतिपूर्ति एवं नई कोशिकाओं का निर्माण होता है। जिससे शरीर की वृद्धि होती है। यह पूरी प्रक्रिया उपचय कहलाती है।

अपचय का अर्थ (Meaning Of Catabolism)

चयापचय की प्रक्रिया का दूसरा भाग अपचय है। अपचय के अंतर्गत विभिन्न तत्वों का विभाजन एवं विश्लेषण होता है। ग्रहण किए गए आहार से शरीर ऊर्जा प्राप्त करता है। ग्रहण किया गया तथा पाचित एवं अवशोषित आहार अपने सुष्मतम रूप में शरीर के विभिन्न अंगो-प्रत्यगों एवं अवयवों की कोशिकाओं में पहुँचता है।

यहाँ पहुंचकर पुनः विशिष्ट रासायनिक प्रक्रियाओ के माध्यम से इनका विश्लेषण होता है। यहाँ इनका ऑक्सीकरण होता है। ऑक्सीकरण के परिणामस्वरूप ऊर्जा एवं ऊष्मा उत्पन्न होती है। साथ-ही साथ नाइट्रोजन, कार्बन डाई-ऑक्साइड तथा जल विभाजित हो जाते है तथा उनका विसर्जन हो जाता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के माध्यम से आहार में

विद्ममान स्थितिज ऊर्जा (Potential Energy) गतिज ऊर्जा में बदल जाती है। इस गतिज ऊर्जा से ही हमारे शरीर के विभिन्न कार्य पुरे होते है यह सम्पूर्ण प्रक्रिया अपचय कहलाती है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है की हमारे शरीर में अपचय तथा उपचय की क्रियाए निरंतर एक साथ चलती रहती है। यह अलग बात है कि भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में इन क्रियाओ की गति भीं-भिन्न तथा असमान हो सकती है। जब शरीर में तेज़ी से विकास एवं वृद्धि होती है। उस अवस्था में उपचय (Anabolism) की गति अधिक तथा अपचय (Catabolism) की गति कम होती है।

इसके विपरीत व्रद्धावस्था में उपचय की दर कम हो जाती है तथा अपचय की गति अपेक्षाकृत रूप से बढ़ जाती है। इन असंतुलित क्रियाओ के कारण शरीर क्रमशः क्षीण एवं दुर्बल होने लगता है। इसी प्रकार उपवास या किसी रोग अवस्था में शरीर दुर्बल तथा शिथिल हो जाता है। उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है कि अपचय तथा उपचय की दर लगभग समान ही रहे। उपर्युक्त विवरण द्वारा पाचन, अवशोषण तथा चयापचय की क्रियाओ का अर्थ स्पष्ट हो जाता है।

प्राणी शरीर के लिए ये तीनो ही क्रियाए अत्यधिक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है। पाचन की क्रिया द्वारा ग्रहण किये गए खाद्द्य-पदार्थ सरल अवस्था में परिवर्तित होते है। अवशोषण की क्रिया के अंतर्गत आहार के अनिवार्य पौष्टिक तत्व साधारण एवं सरल इकाई के रूप में रक्त एवं लसिका में प्रवेश करते है। रक्त एवं लसिका में मिल जाने के उपरांत पोषक तत्वों का शरीर द्वारा उपयोग करना चयापचय कहलाता है। स्पष्ट है कि तीनो क्रियाए परम्पर संम्बद्ध होती है। तथा एक दूसरे पर निर्भर भी होती है। शरीर के पूर्ण स्वस्थ रहने के लिए इन तीनो ही क्रियाओं का सुचारु रहना अनिवार्य है।

FAQ

Qus-पाचन तंत्र के कितने अंग होते हैं?

  • Ans-मुख (Mouth)
  • ग्रसनी तथा ग्रासनली (Pharynx and Oesophagus)
  • अमाशय (Stomach)
  • पक्वाशय या ग्रहणी (Duodenum)
  • यकृत (Liver)
  • पित्ताशय (Bile sac or Gall Bladder)
  • अग्न्याशय या क्लोम (Pancreas)
  • प्लीहा या तिल्ली (Spleen)
  • छोटी आँत (Small intestine)
  • बड़ी आँत (Large intestine)

Qus-पाचन का सबसे महत्वपूर्ण अंग कौन सा है?

Ans- पाचन-तंत्र के कुछ अंग ऐसे है जो आहार ग्रहण करने तथा उसके पाचन की क्रिया में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेते है। इन अंगो को आहार-मार्ग या आहारनाल के रूप में जाना जाता है।  ये वे अंग है जिनमे से होकर आहार सरकता है तथा मल के रूप में विसर्जित हो जाता है।  इन अंगो के अतिरिक्त पाचन-तंत्र के कुछ अन्य अंग भी है। जो पाचन-क्रिया में बाहर से सहायता प्रदान करते है।  इस वर्ग के मुख्य अंग है। यकृत पित्ताशय या क्लोम तथा प्लीहा या तिल्ली इन्हे पाचन-तंत्र के सहायक अंग कहा जाता है।

Qus-खाना पचाने का काम कौन करता है?

Ans-पाचन-तंत्र का प्रथम अंग मुख है। यह होठों से प्रारम्भ होता है। इसमें दाँत, जीभ तथा लार-ग्रन्थियाँ पाई जाती है। मुख के इन तीनो अंगो द्वारा पाचन-क्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है। मुख का पाचन-तंत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। पाचन-क्रिया में चक्की का कार्य करता है। दाँत आहार को बारीक़ करने का कार्य करते है। वयस्क व्यक्ति के मुँह में कुल 32 दाँत होते है। जीभ आहार को अंदर धकेलने का कार्य करती है तथा लार-ग्रन्थियाँ होती है जो लार उत्पन्न करती है।

Qus-पेट का दूसरा नाम क्या है?

Ans- पेट अमाशय (Stomach)

Qus-ग्रसनी का कार्य क्या है?

Ans- ग्रासनली- पाचन-तंत्र का दूसरा मुख्य अंग ग्रासनली है। गले में जीभ की जड़ से ठीक पीछे घाँटीद्वार (Glottis) होता है। जो स्वर-यंत्र से संबंधित रहता है।  घाँटीद्वार के पीछे ग्रसनी (Pharynx) होती है। इससे एक लम्बी नली संबंधित होती है। जो टेंटुए के पीछे से होती हुई शरीर के अंदर चली जाती है। तथा नीचे अमाशय में मिल जाती है।

Qus-ग्रसनी की लंबाई कितनी है?

Ans- इस नली को भोजन-नली या ग्रासनली या अन्न-नलिका कहते है। मुख के बाद गले से निगले जाने पर भोजन यही से होकर आगे बढ़ता है। भोजन नली लगभग 25 से 38 सेंटीमीटर तक लम्बा होती है। यह टेंटुए के पीछे स्थित होती है और टेंटुए के समाप्त होने पर इसके सामने ह्रदय रहता है। ह्रदय के पीछे से यह डायाफ्रम  भीतर होती हुई अमाशय में पहुँचती है।  यह नली गोल छल्लेदार पेशियों से निर्मित होती है।

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